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इन्द्रा॒ नु पू॒षणा॑ व॒यं स॒ख्याय॑ स्व॒स्तये॑। हु॒वेम॒ वाज॑सातये ॥१॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

indrā nu pūṣaṇā vayaṁ sakhyāya svastaye | huvema vājasātaye ||

पद पाठ

इन्द्रा॑। नु। पू॒षणा॑। व॒यम्। स॒ख्याय॑। स्व॒स्तये॑। हु॒वेम॑। वाज॑ऽसातये ॥१॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:57» मन्त्र:1 | अष्टक:4» अध्याय:8» वर्ग:23» मन्त्र:1 | मण्डल:6» अनुवाक:5» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब छः ऋचावाले सत्तावनवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में मनुष्यों को किसके साथ मित्रता करनी चाहिये, इस विषय का वर्णन करते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्रा, पूषणा) परम ऐश्वर्य्य युक्त को तथा सबको पुष्टि करनेवाले को (वयम्) हम लोग (सख्याय) मित्रता तथा (स्वस्तये) सुख वा (वाजसातये) अन्नादिकों का जिसमें विभाग है, उसके लिये (नु) शीघ्र (हुवेम) स्वीकार करें ॥१॥
भावार्थभाषाः - जो सब में मित्रता विधान कर सबके सुख की चाहना करते हैं, उन्हीं को हम लोग स्वीकार करें ॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ मनुष्यैः केन सह सख्यं कार्य्यमित्याह ॥

अन्वय:

इन्द्रापूषणा वयं सख्याय स्वस्तये वाजसातये नु हुवेम ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्रा) परमैश्वर्य्ययुक्तम् (नु) सद्यः (पूषणा) सर्वेषां पोषकम् (वयम्) (सख्याय) मित्रत्वाय (स्वस्तये) सुखाय (हुवेम) स्वीकुर्याम (वाजसातये) अन्नादीनां विभागो यस्मिँस्तस्मै ॥१॥
भावार्थभाषाः - ये विश्वस्मिन् मैत्रीं विधाय सर्वस्य सुखमिच्छन्ति तानेव वयं स्वीकुर्याम ॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात भूमी विद्युतच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्वीच्या सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

भावार्थभाषाः - जे सर्वांबरोबर मैत्री करतात व सर्वांच्या सुखाची इच्छा करतात त्यांचाच आम्ही स्वीकार करावा. ॥ १ ॥